Monday, June 1, 2015

आज कबीर के सम्मान में

आज कबीर के सम्मान में 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

द्रष्टुं गतवान् दुष्टतां काऽपि न लब्धा दुष्टता ।

अन्तःकरणम् अपश्यं मत्तो दुष्टो नहि कोऽपि ॥१॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

पाठं पाठं ग्रन्थान् नष्टाः कोऽपि न जातो विद्वान् ।

पठित्वाऽक्षरे च प्रेम्णः भवति हि विद्वद्वरः ॥२॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

मालाजपमथ कुरुते नान्तःकरणे शुचिता । 

मालागणनं त्यजतात् मानसं नर ते शमय ॥३॥

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

परेषां दृष्ट्वा च दोषान् हासं हासं च गच्छति ।

नाविचिन्त्य चात्मानं नादिर्नान्तं च यस्य हि ॥४॥

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

अमूल्यं हि वचोऽस्माकं यो वाचः तत्त्वं जानाति ।

तुलायां हृदि सन्तोल्य मुखरेद् वैखरीं नरः ॥५॥

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

नाधिकं भणनं सम्यक् नाधिकं मौनं हि सम्यक् ।

हिताय नातिवृष्टिः स्यात् न हितायातपतापः ॥६॥

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

समीपे निन्दकं रक्षेत् भवेदुपकृतिर्यथा ।

फेनकेन जलं विना शोधयति नस्स्वभावम् ॥७॥

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.

कबीरस्तिष्ठन् जीवने वाञ्छति हितं समेषाम् ।

न भवेत् कस्यचिन्मैत्री न भवेच्छत्रुता परम् ॥८॥

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई.                                                                                     जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई.

गुणग्राहिषु लब्धेषु भवति महार्घं मूल्यम् ।

यदा न लभते तादृक् मूल्यं सौप्तिकं जायते ॥९॥

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस.                                                                                             ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस. 

मानव मा कुरु गर्वं गृहीतः केशो मृत्युना ।

न ज्ञायते क्व मारयेत् वेश्मनि उत वा बहिः ॥१०॥

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