आज कबीर के सम्मान में
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
द्रष्टुं गतवान् दुष्टतां काऽपि न लब्धा दुष्टता ।
अन्तःकरणम् अपश्यं मत्तो दुष्टो नहि कोऽपि ॥१॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
पाठं पाठं ग्रन्थान् नष्टाः कोऽपि न जातो विद्वान् ।
पठित्वाऽक्षरे च प्रेम्णः भवति हि विद्वद्वरः ॥२॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
मालाजपमथ कुरुते नान्तःकरणे शुचिता ।
मालागणनं त्यजतात् मानसं नर ते शमय ॥३॥
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
परेषां दृष्ट्वा च दोषान् हासं हासं च गच्छति ।
नाविचिन्त्य चात्मानं नादिर्नान्तं च यस्य हि ॥४॥
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अमूल्यं हि वचोऽस्माकं यो वाचः तत्त्वं जानाति ।
तुलायां हृदि सन्तोल्य मुखरेद् वैखरीं नरः ॥५॥
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
नाधिकं भणनं सम्यक् नाधिकं मौनं हि सम्यक् ।
हिताय नातिवृष्टिः स्यात् न हितायातपतापः ॥६॥
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
समीपे निन्दकं रक्षेत् भवेदुपकृतिर्यथा ।
फेनकेन जलं विना शोधयति नस्स्वभावम् ॥७॥
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
कबीरस्तिष्ठन् जीवने वाञ्छति हितं समेषाम् ।
न भवेत् कस्यचिन्मैत्री न भवेच्छत्रुता परम् ॥८॥
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई. जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई.
गुणग्राहिषु लब्धेषु भवति महार्घं मूल्यम् ।
यदा न लभते तादृक् मूल्यं सौप्तिकं जायते ॥९॥
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस. ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस.
मानव मा कुरु गर्वं गृहीतः केशो मृत्युना ।
न ज्ञायते क्व मारयेत् वेश्मनि उत वा बहिः ॥१०॥
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