Thursday, October 22, 2015

Lakshmi Stuti Concluding Verse

भक्त्या स्तोत्रं विरचितमिदं कीलके नाम्नि वर्षे
तौलीमासे सिततिथियुते मातरं ध्यायता ताम् ।
कौण्डिन्यांशे विहितजनुषा देवनाथेन लक्ष्मीं
स्वान्ते कृत्वा शुभनवतमोद्धर्षणे विष्णुपत्नीम् ।।१०।।

इस कीलक संवत्सर तुला मास शुक्लपक्ष में माता लक्ष्मी का ध्यान करते हुए कौण्डिन्य गोत्र में जन्म लिए देवनाथ नामक कवि नवरात्र उत्सव के उपलक्ष्य में विष्णु पत्नी लक्ष्मी का इस स्तोत्र की रचना की ।।

This Stotra is composed by Devanathan born in Kaundinya Gotra in this Keelaka year Tula month Shuklapaksha on the occasion of Navaratra Celebration having kept with devotion on his mind. 


Wednesday, October 21, 2015

Lakshmi Stuti - 9

वन्दे मात: तव च चरणौ नित्यमानन्दहेतू
कुर्वे पूजामुचितविधिना पद्मपुष्पाधिवासे ।
तन्वे भक्त्या चरितममृतं सर्वदा ते सहर्षं
भाषे गाथां परममधुरां शोभनां शोभनानाम् ।।९।।
हे लक्ष्मी आप चरणों मेरा प्रणाम जो हमेशा आनन्ददायक है । हे पद्म पुष्प में वास करनेवाली, उचित विधियों से आपकी पूजा करता हूं ।आप अमृत चरित को सर्वदा हर्ष के साथ गाता हूं । आप की परम मधुर गाथा को जो मङ्गल के लिए मङ्गल है उसे हमाशा कहता हूं ।।

I bow at your feet that give happiness always. O Lakshmi, I do worship as per laid down practice's. I always sing your story of nectar always. I speak you sweet story that welfare of all welfares.

Monday, October 19, 2015

Lakshmi Stuti - 8

ब्रह्मा धत्ते निगममहतीं स्वीयजिह्वाग्रभागे
रुद्रो धत्ते सकलजगतां मातरं वामभागे ।
द्वित्वे निष्ठा मुभयगणितिं स्मारयन्ती च दृष्टिं
ह्येकं शेषी त्यनुपमनये त्वं च हेतुर्हि मात: ।।८।।

ब्रह्मा जी अपनी पत्नी जो वेदों के मूल है उनहें अपने जिह्वा के आगे रखा । शिव जी तो जगत की मां अपनी पत्नी को अपने शरीर वाम भाग को ही दे दिया । द्वित्व न एक में है न वा दो में है, वह द्वित्व दोनों में एक साथ रहता है । इस प्रकार "उभय अधिष्ठित एक ही अङ्गी है" ऐसे अनुपम सिद्धान्त को स्मारण करती हुई उस सिद्धान्त के कारण बनकर रहनेवाली हे लक्ष्मी आपको मेरा प्रणाम ।।

Brahma gave her wife Sarasvati his tip of the tongue. Shiva gave his left side of the body to his wife Shivani. Double or couple neither mean one independently, nor two independently. It means one & two simultaneously unitedly or jointly. Like this, you remind us the inco.parable principle "one whole reside on the both" and become the cause for that. O Lakshmi I salute you. 

Lakshmi Stuti - 7

नाम्ना तावद् यतिपतिमतं श्रीहरेरेव साक्षाद् अस्येशाना जगत इति ते सिद्धिरप्यस्ति वेदे ।
पत्युस्स्वान्ते निवसति सदा विष्णुपत्नीति वित्ता चित्रं चेदं नरकृतिरियं स्त्रीक्रिया नैव चोक्ता ।।७।।
By name the philosophy of Bhagavan Ramanuja (Yatipati) is known as Shrivaishnavam, that is named after You O Lakshmi. Further, Veda says that You are the Goddess of this Earth. And You reside in the heart of the Vishnu, so that known as Vishnupatni. Even though, the recommendaion you make on behalf of devotees for Liberation (Moksha) is known as Purashakara (in Ramanuja Philosophy) and not as Streekara. This is a surprising thing!!!
हे लक्ष्मि, रामानुजसम्प्रदाय आप ही के नाम से विदित है श्रीवैष्णवम् इति । और वेद घोषित करता है कि आप ही इस जगत की ईशाना है । आप भगवान् विष्णु के हृदय में रहकर विष्णुपत्नी के नाम से भी जानी जाती है । फिर भी आप जो मदद करती है भक्तों की मुक्ति के सन्दर्भ में उसे स्त्रीकार न कहकर पुरुषकार क्यों कहते हैं यह आश्चर्य का विषय है ॥

Sunday, October 18, 2015

Lakshmi Stuti - 6

वल्ल्यां दृष्टं कमलकुसुमं जातु नैवेह दृश्यं
हेमाब्जे वै दृशिमुपगता वल्लरी चित्रमेतत् ।
वीचीश्रेणी मुखमतिशुभं सन्निकृष्टा त्वदीयं
तस्मादाख्या लहरिवदना त्वं च लब्धासि भद्रे ।।६।।

We saw a lotus blossom on a creeper. But here surprisingly a creeper blossomed on a lotus. Figuratively it means that Lakshmi (creeper) on the lotus. Series of waves often come near the face of Lakshmi (as she is in the ocean) because of which Lakshmi is known as Wave-faced. In the village Aheendrapuram in Cuddalore district of Tamilnadu, Goddess Lakshmi is known as तरङ्गमुखनन्दिनी । Because Goddess is near the River Garudanadi, the waves of which come near the face of Goddess.

हम देखें हैं लता पर पद्म को परन्तु यहां पर एक पदम के ऊपर लता दिखती है क्या आश्चर्य ! यहां पद्म पर विराजमान लक्ष्मी का रूपक है । लक्ष्मी के मुख के समीप समुद्र पर विराजमान होने के कारण लहरें आते जाते रहते हैं जिस के कारण आप तरङ्गमुखनन्दिनी जानी जाती हैं ।।


Saturday, October 17, 2015

Lakshmi Stuti - 5

शेते भर्ता भुजगशयने यस्य शीर्षं ह्यनन्तं शय्या सिन्धो र्लहरिचलने नैव तस्या वितानम् ।
सूर्ये तापे निखिलसमयश्चन्द्रिकायां च दोषा भर्तु: पुत्र: कमलकुसुमे हन्त लक्ष्मीं च वन्दे ॥५॥

आप के पति देव सांप की शय्या पर लेटे हैं जिन के अनन्त (हजार​) शिरस् हैं । उस शय्या तो सागर की लहरों के बीच में है जिस के ऊपर कोई आवरण नहीं है । दिन में सूरज के ताप है और रात में चन्द्रिका का शीत । और आप दोनों के बीच आप के पति के पुत्र ब्रह्मा जी विराजमान है । ऐसी अवस्था में बैठी हुई भी हम लोगों के कल्याण करती हो, हन्त आप को मेरा वन्दन हो ॥ 

Your husband is lying on a snake who has innumerable (thousand) heads and this bed is midst of waves of the ocean. This has no cover on top. All the day scorched by Sun heat and cold of the Moon rays in the night. Between you and your husband, the son of your husband Brahma is seated. O Lakshmi ! in these circumstances also you do welfare to us, I bow to you.  

Friday, October 16, 2015

Lakshmi Stotram - 4

श्रुत्यन्तार्यै रचितमतुलं स्तोत्रमेवात्र लक्ष्म्या: श्रीस्तुत्याख्यं सुरपतिकुले राजते शेषतीर्थे ।
ब्राह्मण्यै तै र्विरचितमिदं सर्वलोकानुकामान् पूर्णान्कर्तुं परिणयविधौ पद्मवर्णाप्रसादात् ।।४।।
Swami Desiokan (One Great Acharya of Ramanuja Sampradaya, who has authored 108 works including one Mahakavya - Yadavabhyudayam, Sandesha Kavyam -Hamsa Sandesham) by the grace of Goddess Lakshmi composed Shri Stuti at Aheendrapuram (a village where he spent most of his life time). That Stotram is still recited in the temple of Shri Devanatha Svamy where one Punya Tirtha by name Shesha Tirtha is also there. He composed this unparalleled stotra to help a Brahmin lady to come over her poverty and to manage the marriage of her daughter. After hearing this stotra Goddess Lakshmi showered golden rain. This stotra fulfills desires of all people.
स्वामी वेदान्त देशिक नामक एक महाकवि ने लक्ष्मी की अनुकम्पा से श्रीस्तुति नामक एक स्तोत्र की रचना की । यह स्तोत्र वे अपने जीवन के अधिकांश समय यापन करनेवाले गावं मे श्रीदेवनाथस्वामी देवालय में जहां शेषतीर्थ नामक एक पुण्य तीर्थ भी है वहां की थी । और इस की रचना एक निर्धन ब्राह्मणी के मदद के लिए की गयी थी । इस स्तोत्र की रचना से प्रसन्न होकर लक्ष्मी स्वर्ण की वर्षा की । ऐसी लक्ष्मी को मेरा प्रणाम हो ॥

Mahanamni or Shakvari Vrata

Mahanamni verses are a set of ten verses known as Mahanmni or Sakvari Richas. These Richas are expected to give the desired result if chanted (recited) by a Brahmacharin having undergone a rigorous vow for twelve or ten or nine years at the least. These Rcihas are also found in Samaveda in the Purvarchika as an appendix. (Parishishta). Devata of this Richas is Indra. 

The Gobhila Grihya Sutra explains this Sakvari Vrata as follows - G.G.S-3

द्वादश महानाम्निकाः संवत्सराः १ नव षट् त्रयः २ इति विकल्पः ३ संवत्सरमप्येके ४ व्रतं तु भूयः ५ पूर्वैश्चेच्छ्रुता महानाम्न्यः ६ अथापि रौरुकिब्राह्मणं भवति ७ कुमारान्ह स्म वै मातरः पाययमाना आहुः ८ शक्वरीणां पुत्रका व्रतं पारयिष्णवो भवतेति ९ तास्वनुसवनमुदकोपस्पर्शनम् १० नानुपस्पृश्य भोजनं प्रातः ११ सायमुपस्पृश्याभोजनमा समिदाधानात् १२ कृष्णवस्त्रः १३ कृष्णभक्षः १४ आचार्याधीनः १५ अपन्थदायी १६ तपस्वी १७ तिष्ठेद्दिवा १८ आसीत नक्तम् १९ वर्षति च नोपसर्पेच्छन्नम् २० वर्षन्तं ब्रूयादापः शक्वर्य इति २१ विद्योतमानं ब्रूयादेवंरूपाः खलु शक्वर्यो भवन्तीति २२ स्तनयन्तं ब्रूयान्मह्या महान्घोष इति २३ न स्रवन्तीमतिक्रामेदनुपस्पृशन् २४ न नावमारोहेत् २५ प्राणसंशये तूपस्पृश्यारोहेत् २६ तथा प्रत्यवरुह्य २७ उदकसाधवो हि महानाम्न्य इति २८ एवं खलु चरतः कामवर्षी पर्जन्यो भवति २९ अनियमो वा कृष्णस्थानासनपन्थभक्षेषु ३० तृतीये चरिते स्तोत्रीयामनुगापयेत् ३१ एवमितरे स्तोत्रीये ३२ सर्वा वान्ते सर्वस्य ३३ उपोषिताय संमीलितायानुगापयेत् ३४ कँ समपां पूरयित्वा सर्वौषधीः कृत्वा हस्ताववधाय प्रदक्षिणमाचार्योऽहतेन वसनेन परिणह्येत् ३५ परिणहनान्ते वानुगापयेत् ३६ परिणद्धो वाग्यतो न भुञ्जीत त्रिरात्रमहोरात्रौ वा ३७ अपि वारण्ये तिष्ठेदास्तमयात् ३८ श्वो भूतेऽरण्येऽग्निमुपसमाधाय व्याहृतिभिर्हुत्वाथैनमवेक्षयेत् ३९ अग्निमाज्यमादित्यं ब्रह्माणमनड्वाहमन्नमपो दधीति ४० स्वरभिव्यख्यं ज्योतिरभिव्यख्यमिति ४१ एवं त्रिः सर्वाणि ४२ शान्तिं कृत्वा गुरुमभिवादयते ४३ सोऽस्य वाग्विसर्गः ४४ अनड्वान्कँ सो वासो वर दक्षिणाः ४५ प्रथमे विकल्पः ४६ आच्छादयेद्गुरुमित्येके ४७ ऐन्द्रः स्थालीपाकस्तस्य जुहुयादृचं साम यजामह इत्येतयर्चा सदसस्पतिमद्भुतमिति वोभाभ्यां वा ४८ अनुप्रवचनीयेष्वेवम् ४९ सर्वत्राचार्षं तदशकं तेनारात्समुपगामिति मन्त्रविशेषः ५० आग्नेयेऽज ऐन्द्रे मेषो गौः पावमाने पर्वदक्षिणाः ५१ प्रत्येत्याचार्यं सपरिषत्कं भोजयेत् ५२ सब्रह्मचारिणश्चोपसमेतान् ५३ ज्येष्ठसाम्नो महानाम्निकेनैवानुगापनकल्पो व्याख्यातः //
The meaning as given below -

For the Sakvari verses, twelve, nine, six, or three (years through which the Vrata is to be kept) make up the various possibilities. He (who keeps the Sakvara-vrata) wears dark clothes. He eats dark food. He is entirely addicted to his teacher. He should stand in day-time. He should sit at night. According to some (teachers, the Vrata may last only) one year, if the ancestors (of the student) have learnt (the Sakvari verses). (The teacher) should sing (those verses) to (the student) who has fasted and veiled his eyes (thinking), 'May (the teacher) not burn me (with the Sakvari verses). In the morning they make (the student) look at such things as they expect will not burn him, viz. water, fire, a calf, the sun. At water (he should look) with (the words), 'Water have I beheld!' At fire with (the words), 'Light have I beheld!' At the calf with (the words), 'Cattle have I beheld!' At the sun with (the words), 'The sky have I beheld!'--thus he should break his silence. A cow is the fee (for the teacher), A brazen vessel, a garment, and a golden ornament. 
Though there are so many rules to be observed in this Vrata, I did not translate the whole part of Gobhila Sutra. I just translated to show the vigour and rigour of the vow. 
If a Brahmachari performs this strictly adhering to the prescribed rules he could produce rain as per his wish. However, it is essential that a Brahmacharin should follow the rules. Before a student began to study the Mahanamni or Sakvari verses forming a supplement to the Sama Veda, he had to prepare himself by keeping a vow, the Sakvari-vrata for twelve, nine, six, or at least three years . Among the many duties connected with this vow, the student required to wear a single dark cloth and eat dark food; he should keep standing during the day time, and pass the night sitting; when it rained he should not seek cover; After he had prepared himself by these and other austerities, the verses were recited to him. If everything is followed, then the Brahmacharin could produce rain according to his wish. 

The Mahanamni Archikas -


Thursday, October 15, 2015

लक्ष्मी स्तुति ३

भक्त: स्तौति प्रवरमनसा त्वां प्रपन्नो धनार्थं
नात्मन्यर्थे विहितवचनश्शङ्करस्त्वाञ्च वाचा ।
ब्राह्मण्यार्तिं प्रशमनपरा हैमवृष्टिं प्रसार्य
द्यावाभूमी कनकझरयाsयोजयद्रक्षणार्थम् ।।३।।
परम भक्त शङ्कर भगवत्पाद श्रेष्ठ मन से किसी निर्धन ब्राह्मणी के लिए अपनी वाणी से आप की स्तुति की । उस ब्राह्मणी के कष्ट को दूर करने के लिए ऐसी स्वर्ण बर्षा की जिस धारा से जमीन और आसमान जुड गया जैसे लगा ।।
Adi Shankar with his virtuous mind prayed You for the wealth to a poor Brahim lady. You also rained gold in her house by which you connected the earth and sky. 

Tuesday, October 13, 2015

लक्ष्मी सकतुतग - ३

सिन्धोर्जाता कमलनिलया मङ्गला विष्णुपत्नी
कारुण्याभा सलिलवसना भक्तलोकानुकूला ।
भूमा यस्या: सहचरवधू: विष्णुचित्तात्मजा वै
सम्पद्यन्ते निखिलवसुधासम्पदास्त्वत्प्रपत्त्या।। (2)
Born from the ocean, residing in lotus, auspicious, wife of Vishnu, shining with mercy, living on waters, favourable to devotees, and whose co-consorts are Bhudevi & Godadevi (daughter of Vishnucitta). Who takes refuge on your feet will get all wealth of the world.
सागर से उत्पन्न, कमल पर रहनेवाली, मङ्गल करनेवाली, विष्णु की पत्नी, करुणा रूप प्रकाश युक्त, जल पर वास करनेवाली, भक्तों को अनुकूल करनेवाली, और जिस की सहधर्म पत्नी भूमि और गोदा । इस लक्ष्मी के शरण में जानेवालों को भूमि के सर्व ऐश्वर्य प्राप्त होगा ।।

लक्ष्मीस्तुतिः

मेया मा या दिनमनुदिनं शोभनं कुर्वती नो
यामे यामा प्रतिपदमहो दैवतं भाग्यमीडा ।
वामे स्थित्वा सकलजगतां सम्पदं प्रापयन्ती
मेवा स्थित्वा हृदयकमले शान्तिदा राजतां सा ॥१॥

जो लक्ष्मी हर दिन हम लोकों को मङ्गल करने वाली, हर समय भक्तों के मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में उपस्थित होनेवाली, हम लोकों के भाग्य की देवी और स्तुति के योग्य​, भगवान् के वाम भाग में रहकर सभी लोकों को ऐश्वर्य देनेवाली सेवा के योग्य, शान्ति देनेवाली वह लक्ष्मी हमारे हृदय कमल में विराजमान हो ॥ 

मेया=ज्ञेया, यामा=यामो गमनसाधनः मोक्षप्राप्ति रूप गमन में साधन के रूप में रहनेवाली । लक्ष्म्याः पुरुषकारेण एव मोक्षः इति सिद्धान्तः रामानुजीयानाम् । मेवा=मेव सेवने इत्यस्मात् मेवते सेवते (हरिं) इति मेवा लक्ष्मीः ॥

Who does welfare every day to us and who is to be known, in each step of us who helps to attain liberation, who is our destiny, to be prayed and Goddess, who gives us all wealth having seated on the right side of Bhagavan, who serves Hari and who gives peace to us that Lakshmi be seated in my heart-lotus. 

Saturday, October 3, 2015

चरण स्पर्श क्यों ?


तैत्तिरीयब्राह्मणे (३-१२-३-४) एवं श्रूयते - चर॑णं प॒वित्रं॒ वित॑तं पुरा॒णम् । येन॑ पू॒तस्तर॑ति दुष्कृ॒तानि॑ । तेन॑ प॒वित्रेण॑ शु॒द्धेन॑ पू॒ताः । अति॑ पा॒प्मान॒मरा॑तिं तरेम । 

**चरत्यनेनेति पादेन्द्रियं चरणम् । शास्त्रीयाचरणं वा तेन उच्यते (धर्मो वा)  । तच्च पवित्रं शुद्धिकारणम् । वित॑तं सर्वप्राणिविषयत्वेन विस्त‌ीर्णम् । पुराणं सृष्ट्यादिमारभ्य‌ प्रवृत्तत्वात् चिरन्तनम्  । येन चरणेन देवेन पूतः शोधितः पुरुषो दुष्कृतानि तरति पापानि विनाशयति । पवित्रेण अन्यस्य शोधकेन स्वयमपि शुद्धेन तेन चरणदेवेन (धर्मेण) पूताः  वयं पाप्मानमरातिं पापरूपं शत्रुम् अतितरेम अतिशयेन लङ्घयामः । पुण्यं स्थानं गच्छेम ॥

लो॒कस्य॒ द्वार॑मर्चि॒मत्प॒वित्र॑म् ।  ज्योति॑ष्म॒द्भ्राज॑मानं॒ मह॑स्वत् । अ॒मृत॑स्य॒ धारा॑ बहु॒ध‌ा दोह॑मानम् । चर॑णं नो लो॒के सुधि॑तां दधातु । 

**यद् एतच्चरण‌ाख्यं देवत‌ास्वरूपं तदेतद् नः अस्माकं स्वर्गलोके सुधितां सुखयुक्तामवस्थितिं दधातु सम्पादयतु । कीदृशं चरणं, लोकस्य द्वारं स्वर्गस्य द्वारवत्प्रवेशसाधनम् । अर्चिमद् अर्चनायुक्तं सर्वैः पूज्यम् । पवित्रं शोधकम् । ज्योतिषमत्त्विषा प्रकाशनसामर्थ्योपेतं भ्राजमानं स्वय‌मपि दीप्यमानं महस्वन् माहात्म्ययुक्तम् । अमृतस्य पीयूषस्य धारा बहुधा दोहमानम् अनेकप्रकारेण संपादनशीलम् ॥

अस्मिन् प्रकरणे अग्निः अनुमतिः इति अनयोः मध्ये पञ्च देवताः स्मर्यन्ते - तपः - श्रद्धा - सत्यम् - मनः - चरणम् इति । तत्र "चरणाय चरु" इत्यस्य हविषः पुरोनुवाक्यामन्त्रः अयम् । अत्र "चरणं" देवतारूपेण स्तूयते ॥

पुराणे पवित्र और विस्तीर्ण चरणों के द्वारा जिस् चरण रूप देवता से शोधित पुरुष अपने पापों को नाश करता है । दूसरों को शुद्ध करनेवाले और स्वयं भी शुद्ध उस चरण देव से पवित्रित हम हमारे सभी पाप रूप शत्रु का उल्लङ्घन करते हैं अर्थात पापों से मुक्त हो जाते हैं ॥

यह जो चरण रूप देव है वह हमें स्वर्ग लोक में सुखमय स्थिति कल्पित करें । यह चरण स्वर्ग लोक के प्रवेश द्वार, सभी के द्वारा पूजनीय, पवित्र, स्वयं दीप्यमान, दूसरों को भी प्रकाशित करने वाला, महनीय और अमृत धारा को देनेवाला है ॥

इस प्रकरण में अग्नि और अनुमति नामक दो देवताओं के बीच अन्य पांच देवताओं का स्मरण है । वे हैं - तपः श्रद्धा सत्यं मनः चरणम् इति ॥

इसी कारण से हम भारतीय उम्र से बडों को, ज्ञान से बडों को, बन्धुता से बडों को, तपस्या आदि से बडों को प्रतीक के रूप में चरण स्पर्श करते हैं ॥

अन्य कई कारण है जैसे १) भगवान् के चरणों में १६ चिह्न है जिन के प्रणाम के लिए भगवान के चरण वन्दन करते हैं, २) भगवान् कृष्ण की वाम चरण से भक्ति और दक्षिण चरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ३) नमस्कारों में साष्टाङ्ग (आठ अङ्गों से दण्डवत् प्रणाम करना) नमस्कार उत्तम माना गया है - साष्टाङ्ग प्रणाम करते समय केवल प्रणम्य का चरण ही दिखाई देता है, अतः प्रतीक के रूप में चरण स्पर्श करते हैं आदि आदि ॥

**यहां पर सायण भाष्य का ही अवलम्बन किया गया है ॥ 

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Friday, October 2, 2015

तिङन्तेन तरप् तमप् च

अतिशायने तमबिष्ठनौ (५-३-५५) इति सूत्रम् । ङ्याप्प्रातिपदिकात् (४-१-१) इति प्रातिपदिकाधिकारः । तथा च सूत्रार्थः - अतिशायनार्थे विद्यमानात् प्रातिपदिकात् तमप् इष्ठन् च प्रत्ययौ भवतः । तथा च उदाहरणानि - लघुतमः लघिष्ठः, गुरुतमः गरिष्ठः इत्यादीनि । एषः प्रत्ययः तिङन्तात् अपि इष्यते । अतः अग्रिमं सूत्रं - तिङश्च (५-३-५६) इति । तिङन्तात् इष्ठन् न भवति, गुणवचनाभावात्, इष्ठन् गुणवचने एव नियतः, अतः तमब् एव । तथा च उदाहरणं - कूर्दतितमाम्, गच्छतितमाम्, वदतितमाम् इति । 

अग्रिमसूत्रं द्विवचनविभज्यौपपदे तरबीयसुनौ (५-३-५७) इति । अत्र अपि प्रातिपदिकाधिकारः, तिङश्च इत्यपि अनुवर्तते । तथा च प्रातिपदिकाद्, तिङः च अपि तरप्-प्रत्ययः, प्रातिपदिकात् गुणवचनात् ईयसुन्-प्रत्ययः च भवतः । लघुतरः लघीयान्, पटुतरः पटीयान्, पचतितराम्, जल्पतितराम् इति उदाहरणानि ।

बहूनाम् एकस्य निर्धारणे तमब् इष्ठन् च प्रत्ययौ । द्वयोः एकस्य निर्धारणे तरब् ईयसुन् च प्रत्ययौ इति विवेकः ।
अत्र कश्चन विचारः - लघुतमः लघिष्ठः इति सिद्धम् । अत्र पुनः बहूनां लघुतमानाम् अयम् अतिशयेन लघुतमः इति विवक्षायाम्, एवमेव लघिष्ठानाम् अयम् अतिशयेन लघिष्ठः इति विवक्षायां च लघुतमतमः, लघिष्ठतमः इत्यादिरूपाणि भवन्ति वा इति । अत्र काशिकाकारः स्पष्टं वदति वैदिकं लौकिकं च उदाहरणे दर्शयित्वा - यदा च प्रकर्षवतां पुनः प्रकर्षो विवक्ष्यते तदातिशायिकान्तादपरः प्रत्ययो भवत्येव। देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे। युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः कुरूणाम् इति। परन्तु इदं मतं शास्त्रकारैः न अङ्गीक्रियते । यतः इदं भाष्यविरुद्धं मतम् । 

अस्मिन् सूत्रे "तदन्ताच्च स्वार्थे च्छन्दसि दर्शनं श्रेष्ठतमाय" इति वार्त्तिकम् । तद्व्याख्यानरूपं भाष्यं यथा - तदन्ताद् आतिशायनिकान्तात् स्वार्थे छन्दसि आतिशायिको दृश्यते - देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे इति । अत्र नागेशः "तदन्ताच्च स्वार्थे इति । एवञ्च लोके अन्यत्र च तरबाद्यन्तात् अतिशये तरबादि अनिष्टमेव इति भावः" इति । तथा च एतस्य भाष्यस्य विरोधात् काशिकाकारेण यदुक्तं तत् न युज्यते इति स्पष्टम् ।

काशिकाकारमतस्य किं मूलम् इति परिशीलयामः । अस्मिन् सूत्रे वार्त्तिके भाष्ये च "छन्दसि दृश्यते श्रेष्ठतमाय​" इत्येव उक्तम् । लोके न भवति इति कण्ठतः नोक्तम् इति विभाव्य काशिकाकारः तथा मतं प्रकटितवान् ।

अत्र अपरः क्लश्चन विचारः । द्विवचनविभज्योपपदे एव तरब् ईयसुन् च भवतः इति सूत्रादीनाम् आशयः स्पष्टः । परन्तु बहूनां निर्धारणे अपि तरब् ईयसुन् च भवतः इति भाष्यप्रयोगप्रामाण्यात् ज्ञायते । तद्यथा - तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य (१-१-६६) इति सूत्रे भाष्ये - "एते खल्वपि नैर्देशिकानां वार्ततरका भवन्ति" इति बहूनां निर्धारणे "वार्त्ततरकाः" इति तरबन्तं प्रयुक्तम् । किञ्च आद्यन्तवदेकस्मिन् (१-१-२१) इति सूत्रे - "यदा तर्हि बहुषु पुत्रेषु एतद् उपपन्नं भवति - अयं मे ज्येष्ठः, अयं मे मध्यमः, अयं मे कनीयान्" इति । अत्र बहूनां निर्धारणे कनीयान् इति ईयसुन्-प्रत्ययान्तं प्रयुक्तम् । अत्र कैयटः अपि भाष्यप्रयोगात् बहूनां निर्धारणे तरबन्तमपि साधु इति । बालमनोरमाकारः अपि तथैव आह ।

परन्तु नागेशः इदं न अङ्गीकरोति । तान् प्रयोगान् अन्यथा व्याख्याय तरबन्तस्य साधुत्वं दर्शयति । अपि च नागेशः अतिशायने तमबिष्ठनौ (५-३-५५) इति सूत्रस्थेन "न खल्वपि बहूनां प्रकर्षे तरबा भवितव्यम्" इति वचनेन विरोधं प्रदर्श्य द्वयोः एकस्य निर्धारणे तरप्, बहूनाम् एकस्य निर्धारणे तमप् इति च निर्णयं करोति ।

अत्र मम आशयः भाष्यप्रयोगयोः अन्यथा व्याख्यानसम्भवे अपि, भाष्यवचनप्रामाण्यात् बहूनां निर्धारणे अपि तरप्-प्रत्ययः भवितुम् अर्हति । परन्तु अयं पक्षः क्वचिद् दृष्टस्य एतादृशप्रयोगस्य समर्थनाय एव आश्रयणीयः, अस्माभिः यथेच्छं प्रयोगः न करणीयः इति शम् ॥ 

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गङ्गाविंशतिः



त्यक्त्वा भागीरथीं पृष्ठेsलकनन्दां नदन्तीं च | गंगे ख्याता भुवि पूता पुण्यैर्नद्यौ ते स्मरतात् ||१||
O Gange ! Remember those two Rivers Bhagirathi and Alakananda whom you left behind and became famous pious River in this world.
शान्ता भागीरथी शान्तिं घोषं घोषालकनन्दा | दत्त्वा गंगे शान्तघोषां कारिते त्वां ते स्मरतात् ||२||
O Gange ! Bhagirathi gave you the quality of silence and Alakananda gave you the quality of noise, thereby you became silent and noisy. You ought to remember those two Rivers.
दशरथगिरेर्याता नरहरिगिरेर्वाहा | शमनदगुणैर्गंगे नरबुधगणैर्वन्द्ये ||३||
You passes through Dasharatha Mountain and flows through Narasimha Mountain with silent and noisy qualities and you are being saluted by both Gods and Humans. 
रामेणाथ तपः तप्तं गंगे त्वत्र तव स्थाने | शान्तो राम इहाभूत्ते शीतैस्त्वद्रसमाधुर्यैः ||४||
Sri Ram was in penance in this place of yours. He became calm by your cold waters. 
देवप्रयागे गंगे त्वं रामप्रसादं प्राप्याभूः | पूता प्रसन्ना सन्मार्गा जातान्नजान् संरक्षेः ||५||
O Gange ! you became pious, happy and the follower of right path in this Devaprayag having blessed by Sri Ram and protect the born and unborn.  
रमणीयः त्वदुद्भवो वहनीयं तवाद्भुतम् | सुरशर्मप्रतिष्ठितं नगरं देवसंगमम् ||६|| 
Your source is beautiful and wonderful is your flow in this city of Devaprayag established by Deva Sharma.
रघुनाथपदचिह्नं ह्यभिषिच्य वरगङ्गे । भजसीह बहुशान्तिं नदनाच्च विरते हे ॥७॥ 
Here, you touches the foot-print of Sri Ram (which is seen even now) and become very calm leaving your roaring. 
इह या शमता दमता दृष्टा न च सा चरता मृदुता प्राग्वा । बहुशो बहुधा वहती क्रूरा कृपया शमतां चरतात् गङ्गे ॥८॥
The silence and control which are seen here (Deva Prayag) could not be seen elsewhere your soft flow. You flow with cruelty at various places in various way. Please, Gange ! flow with silence.
गङ्गे कीर्तिं रघुनाथस्य नेतुं लोके त्वरिता किं नु | शीघ्रं कर्तुं शुभकार्यस्य यत्नो नूनं तव कीर्त्यश्च ||९||
O Gange ! You flow with speed. Does that to spread the fame of Sri Ram? Your efforts to this spread this good job is to be praised indeed.
पोषिता तोषिता पोषकैर्वारिभि: गर्जिता भाषिता पर्वते सानुभि: | वासिता काशिता मेघजैर्बिन्दुभि: घोषिता भूषिता कर्मभूभारते ||१०||
Your nurtured and made happy by the tributaries. You speak and roar at the bottom of the mountains. You became good-smelled and brought to light by the waters of the clouds. That is why you are honoured and proclaimed as pious in this Land of Deed - Bharat.
सत्यं स्रवसि जिह्मा पद्धतिं श्रयसि गङ्गे नित्यं नदसि भूमौ संस्कृतिं वहसि दूरम् | भक्त: तव च पादौ श्रद्धया नमति भक्त्या देवा सपदि तुष्टा ईप्सितं ददति सर्वम् ||११||
You flow truth, take the right path, always sound, and spread the culture long. Devotees salute your feet with dedication. Gods having become happy give all whatever the people want.
क्वचिच्छान्ता गर्जिता क्वचन भूमौ क्वचिन्मन्दा वेगिनी क्वचन देशे | क्वचित्क्रान्ता कौटिला क्वचन मार्गे क्वचिच्छ्रान्ता जृम्भिता क्वचन गङ्गे ||१२||
O Gange, You are somewhere silent, somewhere roaring, flow slow at places and with speed in some places, flow straight somewhere and flow zigzag in other places, somewhere flow as if tired and in some places fresh with speed. 
पाताले प्रवहति सुधाधारा ह्याकाशे प्रचलति तवाधारा | हृद्देशे प्रभवति मनोधारा सर्वस्मिन् प्रलयति कृपाधारा ||१३||
You flow in Patala (under-worlds), also seen in the sky, you are always in our hearts aas mind-flow and you flow mercy-stream on all of us.
विष्णोर्नखाग्रादुद्भूता शम्भोर्जटाग्रादाभूता | हैमाच्छरीरान्निर्भूता भूमौ सदाग्रे सम्भूता ||१४||
You came out from the tip of the nail of Vishnu. You came to light from the Hair of Shiva. You began to flow from the body of Himalayas. You are always seen on the surface of the Earth.
पञ्चसङ्गमो दिव्यबोधको मुख्यसङ्गमो मोक्षदायक: | अर्णसङ्गमो रोगनाशको हृद्विसङ्गमो भावनाशक: ||१५||
The Five Confluences indicate Divinity. The main Confluence at Prayagraj gives Moksha. The confluence with Ocean is removes all diseases. The confluence of Ganga with the heart liberate us from this world. 
गङ्गे शृङ्गे समुत्पन्ने पङ्के तुङ्गे समापन्ने | रङ्गे वङ्गे समासन्ने चाङ्गे भङ्गे सुधापन्ने ||१६||
O Gange ! You comes out from high mountains, mingles with mud and highs, reaches the place of Banga (Bay of Bengal) and becomes a nectar when one's body breaks. 
सदा शुद्धा सकलपापविदग्धा सना पूता निखिलमार्गविशुद्धा | समा नित्याऽखिलजनार्त्तिविनाशा
परे गङ्गे त्वमिह साम्यविधात्री ||१७||
O Gange ! You are always pure and remove all the sins. You are eternally pious and purifies all the ways. You destroy all sorrows of all and become equalizer. O Supreme Gange ! You are here the champion of social equality.  
गतिर्विचित्रा क्रिया पवित्रा नया विनीता भिया प्रभूता | फलं विधातुं धरावतीर्णा जना नमन्ति स्तुतिं वदन्त:||१८||
Your flow is nondescrptive yet your actions are pious. Your moves are submissive yet you create high fear in us. All the people chanting your prayers salute you as you came to this world to give us results.
गङ्गे त्वां प्रतिदिनमभिमन्त्रयन्ति विबुधा: यत्र त्वं न भवति भुवि तत्र यासि तरसा | सार्थक्यं भजति हि कृषिकार्यपूर्तिविधया सामर्थ्यं वहति च नरपापभारनिचये ||१९||
O Gange ! Scholars everyday invokes you and you present there where you are not in the earth. You prove useful in agriculture self -sufficiency. You also have the ability to remove all the sins.
या गङ्गा सर्वतीर्थेषु शक्तिरूपेण वर्तते | तां गङ्गां भक्तिभावेन नौमि सर्वार्थसिद्धये ||२०||
I salute that Ganga with devotion to get all wishes fulfilled, who remains as undercurrent (power) in all waters. 
य: पठेच्छ्रद्धया गङ्गा- विंशतिं सिद्धिदां पराम् | सौख्यसम्पत्प्रदां शुभां सर्वमाप्नोति हीप्सितम् ||२१||
Who chants these twenty verses on Ganga with devotion that gives ultimate accomplishment, comfort and wealth and happiness certainly gets all desires fulfilled.

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